संध्या रायचौधरी
स्त्री को दोयम दर्जे का माना जाना लगभग हर देश का इतिहास रहा है और इसके कई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारण रहे हैं अब जब वक्त बदला है लड़कियों के लिए शिक्षा और काम के अवसर बढ़े हैं तो उन्होंने अपने आप को साबित करके दिखाया है। बचपन से ही लडक़ों को लड़कियों का सम्मान करना सिखाएं न कि उनके बीच भेदभाव का बीज बोएं।
हर माता-पिता यही चाहते हैं कि उनकी नन्ही परी एक दिन बड़ी होकर उनका नाम रोशन करें, उनके सपनों को साकार करें, उनके संस्कार उनकी परवरिश एक दिन रंग लाए । वो इसके लिए एक ऐसा माहौल बनाने का हरसंभव प्रयास भी करते हैं फिर भी कहीं न कहीं एक सूक्ष्म सा अंतर स्पष्ट नजर आ ही जाता है जब माता-पिता बेटा-बेटी में तुलना करने लगते हैं। बड़े शहरों में, अभिजात्य और रईस परिवारों में काफी हदतक खुलापन नजर आ सकता है लेकिन अभी भी हमारे देश में करोड़ों की संख्या ऐसे लोगों की है जो मध्यम और निम्न वर्ग से हैं जहां अभी भी बेटी को एकदम छूट देने का वो सोच भी नहीं सकते हैं, भले ही उनके सपने अपनी लाड़ली के लिए आसमान से भी ऊंचे हों।
दरअसल, इन चाहतों, इन सपनों को पूरा करने के लिए एक ऐसे समाज, परिवार, शहर और ऐसे देश की आवश्यकता है जहां एक लडक़ी को लडक़ी समझने से पहले एक मनुष्य समझा जाए, जहां उसे बुनियादी हकों और अधिकारों के लिए जद्दोजहद न करनी पड़े, जहां उसे कभी समाज, कभी परिवार तो कभी संस्कारों और रीति-रिवाजों के नाम पर संघर्ष से दो-चार न होना पड़े। जहां उसे अपने आप को सिद्ध करने के लिए बार-बार अग्नि परीक्षा से न गुजरना पड़े। यह तभी हो सकेगा जब वह सभ्य, सुरक्षित, शांत और शालीन माहौल में पल-बढ़ सके, अपनों से प्यार और सम्मान पा सके। यह बदलाव की बयार सबसे पहले परिवार में बच्चों की परवरिश के साथ हर माता-पिता को शुरू करना चाहिए फिर देखिए कि कैसे यह परीकथा का हिस्सा सच होता है। आप बचपन से लडक़े और लडक़ी दोनों के लिए एक-सा व्यवहार, एक-सा दुलार और एक-सा अपनापन रखिए और इन बिन्दुओं पर गौर फरमाइए।
परंपराओं में न उलझें रहें
पढ़-लिख कर जब बेटी कमाने लगती है तो उसकी भी इच्छा होती है कि वो अपने माता-पिता के लिए कुछ कर। लेकिन एक आम परिवार मे धारणा बनी रहती कि बेटी के कमाई लेकर क्या पाप चढ़ाना है। बेटी की कमाई नहीं लेना, बेटी के घर का पानी नहीं पीना, बेटी की शादी में दहेज देना , बेटे के द्वारा पिंडदान करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होना , ऐसी अतार्किक और बेबुनियाद बातों से हम कअपनी ही बेटी को एक कदम पीछे कर देते हैं। इन परंपराओं को त्याग करने से ही आप अपने परिवार और समाज की तरक्की कर पाएंगे। अब तक सामाजिक कुरीतियों के कारण ही लड़कियों की स्थिति समाज में पिछड़ी रही है। सामाजिक कुरीतियों के न मानने से निश्चित ही समाज में लड़कियों के प्रति नजरिया बदलेगा । आप दिल से अपनी लाड़ली की परवरिश तो करिए फिर देखिए कैसे एक दिन आपकी बेटी आपके कदमों में खुशियों को लाकर रखती है।
सहयोग, सम्मान और संवेदना
यदि हम प्रकृति पर गौर करें तो पाएंगे कि वह सहयोगवाद के सिद्धांत पर चलती है। प्रकृति में पेड़-पौधे और जीव-जन्तु स्वयं में पूर्ण नहीं हैं। उनके लिए एक-दूसरे का सहयोग जरूरी है। मसलन ज्वार और अरहर एक साथ बोए जाते हैं, बेल वृक्षों के सहारे बड़ी होती है। तो क्यों न पुरुष भी प्रकृति से सीख लेते हुए एक-दूसरे के लिए सहयोग का रवैया अपनाएं न कि उपेक्षा या खुद को श्रेष्ठ मानने का। घर में मां, बहन, बेटी और पत्नी के प्रति भी आप सहयोग का रवैया रखें क्योंकि बदलते वक्त के साथ उनकी भूमिका में भी बदलाव आया है। घर के कामकाज के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी उनकी उपस्थिति का स्वागत कीजिए। यदि आप अपने ही घर में अपनी मां, बेटी या पत्नी का सहयोग और सम्मान नहीं करते उनकी भावनाओं, संवेदनाओं का ख्याल नहीं रखते तो औरों से इसकी अपेक्षा रखना बेमानी होगा। स्त्री और पुरुष एक-दूजे के परिपूरक हैं न कि प्रतिस्पर्धी या श्रेष्ठ और कमतर।
भेदभाव की बात को भूलें
स्त्री को दोयम दर्जे का माना जाना लगभग हर देश का इतिहास रहा है और इसके कई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारण रहे हैं अब जब वक्त बदला है लड़कियों के लिए शिक्षा और काम के अवसर बढ़े हैं तो उन्होंने अपने आप को साबित करके दिखाया है। आप बचपन से ही लडक़ों को लड़कियों का सम्मान करना सिखाएं न कि उनके बीच भेदभाव का बीज बोएं। दोनों को एक-दूसरे का सहयोग करने की सीख दें न कि भाई के आते ही बहन को गुलामों की तरह उसकी सेवा में हाजिर होने की आदत डालें। इतना ही नहीं परिवार में महिलाओं के प्रति भी सहयोगात्मक रहें कि न उनकी बुराई या उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करें । प्यार, सहयोग और समानता की दुनिया में आपकी बेटी के लिए जिंदगी खूबसूरत होगी न कि अभिशाप।
आत्मनिर्भरता आत्मसम्मान का पाठ जरूरी
आर्थिक आत्मनिर्भरता लड़कियों की स्थिति को सुदृढ़ करने में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। आर्थिक निर्भरता ही अब तक उनकी दशा को दयनीय बनाने का प्रबल कारण रहा है। अपने पैरों पर खड़ी होने की ताकत उन्हें समाज में समान स्तर पर लाने में सक्षम होगी। साथ ही शारीरिक और मानसिक रूप से भी लड़कियों को मजबूत बनने की प्रेरणा देंं। इसके अलावा एक और बहुत महत्वपूर्ण चीज है कि स्त्री को सम्मान से जीने का पाठ सिखाएं। यदि शुरू से ही वह ऐसे वातावरण में बड़ी होगी जहां उसे कभी भी घर के एक आवश्यक और महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में न माना जाएगा तो कैसे उसका मानसिक विकास होगा वह खुद को कैसे मजबूती के साथ खड़ा कर पाएगी। एक बेटी जिसे आगे चलकर पत्नी, बहू, मां, सास, दादी बनना है यदि उसमें संस्कार ही समानता के नहीं पड़ेंगे तो वह कैसे अपने वजूद को स्थापित कर पाएगी? उसे एक इंसान ही समझें ने कि लिंग के आधार पर विभक्त करें।