नारीवाद के बारे में सभी ने सुना होगा। मगर यह है क्या? इसके दर्शन और सिद्धांत के बारे में ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम। इसे पूरी तरह जाने और समझे बिना नारीवाद पर कोई भी बहस या विमर्श बेमानी है। नव उदारवाद के बाद भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति आए बदलाव के बाद इन सिद्धांतों को जानना अब और भी जरूरी हो गया है।
स्वाति सिंह
नारीवाद के बारे में सभी ने सुना होगा। मगर यह है क्या? इसके दर्शन और सिद्धांत के बारे में ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम। इसे पूरी तरह जाने और समझे बिना नारीवाद पर कोई भी बहस या विमर्श बेमानी है। नव उदारवाद के बाद भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति आए बदलाव के बाद इन सिद्धांतों को जानना अब और भी जरूरी हो गया है।
दरअसल, नारीवाद एक ऐसा दर्शन है, जिसका उद्देश्य है- समाज में महिलाओं की विशेष स्थिति के कारणों का पता लगाना और उनकी बेहतरी के लिए वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करना। नारीवाद ही बता सकता है कि किस समाज में नारी-सशक्तीकरण के लिए कौन-कौन सी रणनीति अपनाई जानी चाहिए। महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं, इसके बावजूद उन्हें अवसरों से वंचित कर दिया जाता है। नारीवाद ऐसी तमाम परिस्थितियों के विषय में बताता है।
किसी भी विचारधारा के अपने कुछ सिद्धांत होते हैं, जिनकी मदद से हम उस विचारधारा को अच्छी तरह समझ सकते हैं। अब हम जिक्र करेंगे नारीवाद से जुड़े कुछ प्रचलित सिद्धांतों का, जिन्हें कई बार नारीवाद का प्रकार भी माना जाता है।
‘महिला-अधिकार से होगा सुधार’ – उदारवादी नारीवाद
पितृसत्ता के अन्य सिद्धांतों के इतिहास में उदारवादी नारीवाद का इतिहास बेहद पुराना है। यह स्त्री-पुरुष की समानता के सिद्धांत पर आधारित है। अठारहवीं सदी की शुरुआत में उदारवादी नारीवादियों ने आजादी व समानता के जनतांत्रिक मूल्यों और औरतों की अधीनता के बीच के अंतरविरोध को रेखांकित किया। उदारवाद की बुनियाद बने आजादी, समानता और न्याय के विचार सत्ताहीन और चहारदिवारी में बंद महिलाओं की जिंदगी के अनुभवों से बिल्कुल विपरीत थे। महिलाओं के बारे व्याप्त ऐसी गलत धारणाओं को ठीक करने में शुरुआती उदारवादी नारीवादियों, विशेषकर मेरी वोल्स्टोन क्राफ्ट ने जोरदार ढंग से हस्तक्षेप किया। साल 1792 में लंदन से पहली बार प्रकाशित अपने आलेख ‘महिलाओं के अधिकारों का समर्थन’ में उन्होंने महिला-अधिकारों की पुरजोर हिमायत की।
इसके बाद, इटली की क्रिस्¬टीन डी पिजान ने पहली बार लिंगों के आपसी संबंधों के बारे में लिखा और जेरेमी बैंथम ने अपनी किताब ‘Introduction to the Principles of Morals and Legislation’ में स्त्रियों को उनकी कमजोर बुद्धि का बहाना बना कर अधिकारों से वंचित करने की कई राष्¬ट्रों की मंशा की आलोचना की। इस धारा में मेरी वोलस्¬टोनक्राफ्ट, हैरियट टेलर, जान स्¬टुवर्ट मिल, बैट्टी फ्राइडन ग्¬लोरिया स्¬टेनम व रेबिका वाकर जैसे नाम शामिल हैं।
‘पूंजीवाद है महिला-गुलामी की जड़’ : समाजवादी/मार्क्सवादी नारीवाद
समाजवादी नारीवादियों ने न केवल महिलाओं की गुलामी के उदय के – एंगेल्स के विश्लेषण को अपनाया, बल्कि मार्क्सवादी धारणाओं को लागू कर महिलाओं के शोषण चक्र को भी समझने का प्रयास किया। ये नारीवादी, महिलाओं के उन मौजूदा विश्वासों और प्रवृत्तियों का महिमंडन नहीं करते, जिन पर पितृसत्ता विचारधारा का वर्चस्व होता है और जो महत्त्वपूर्ण तरीके से रोजमर्रा के जीवन के पितृसत्तात्मक ढांचे से प्रभावित होते हैं।
भारत में समाजवादी नारीवादियों ने घरों से काम करने वाली महिलाओं को एकजुट करने के प्रयास किए हैं। महिला खेतिहर मजदूरों के लिए खासतौर से जमीन के स्वामित्व की मांगें उठाई हैं। बारबरा इह्रेंरिच ने अपने लेख ‘समाजवाद क्¬या है?’ में इस बात का जिक्र किया है कि मार्क्सवाद और नारीवाद को मिला कर ही समाजवादी नारीवाद की विचारधारा विकसित हुई है।
समाजवादी नारीवादियों की समाज के बारे में सोच केवल अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं है। इनका मानना है कि उत्पादन-प्रक्रिया में प्रजनन-कर्म (जो घर में नारी द्वारा किया जाता है) आता है। लिंग के आधार पर विभाजित श्रम एक तरह से नारी पर थोपा जाता है। इसी प्रकार पितृसत्तात्¬मक समाज में नारी के यौन संबंधी कार्य भी पुरुषों की मर्जी के अनुसार निर्धारित होते रहे हैं। ये मानते हैं कि स्¬वतंत्र प्रजनन व यौन कर्म के लिए शोषण को खत्म करना जरूरी है, यह तभी हो सकता है जब पूंजीवादी व्¬यवस्¬था व पितृसत्ता का अंत हो।
समाजवादी नारीवाद की रणनीति की व्याख्या ‘शिकागो वीमेंस लिबरेशन यूनियन’ के चैप्टर (1972) में की गई। इसके अनुसार समाजवादी नारीवादी मानते हैं कि पूंजीवादी व्¬यवस्¬था में पूंजीवादी वर्ग का वर्चस्व व दमन संस्थाओं के माध्यम से व्यवस्थित तरीके से सुनिश्चित किया जाता है।