Savitribai Phule Jayanti 2022: सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ. उनकी जयंती के मौके पर जानिए कैसे एक लड़की देश की पहली महिला शिक्षक बनी.
सावित्रीबाई फुले का नाम इतिहास में यूं ही दर्ज नहीं हुआ. वो देश ही पहली महिला शिक्षक बनी. समाजसेवा की तस्वीर को बदल दिया. महिलाओं के अधिकारों और शिक्षा को लेकर लड़ीं. छुआछूत, सतीप्रथा और बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर आवाज बुलंद की. सावित्री बाई फुले उन शख्सियतों में शामिल है जिन्होंने उस दौर में महिला सशक्तिकरण के कदम उठाए जब इसकी कल्पना करना भी मुश्किल था.
सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ. उनकी जयंती के मौके पर जानिए कैसे एक लड़की देश की पहली महिला शिक्षक बनी.
9 साल उम्र में शादी और पढ़ाई का सपना
9 साल की उम्र में उनकी शादी पूना (अब पुणे) के ज्योतिबा फुले से कर दी गई. विवाह के समय तक वो पूरी तरह से अनपढ़ थी. जिस वक्त शादी हुई उस समय पति तीसरी कक्षा में पढ़ रहे थे. ये वो दौर था जब दलितों के साथ भेदभाव होता था और महिलाओं को पढ़ने की आजादी नहीं थी. एक दिन वो घर में अंग्रेजी की किताब के पन्ने पलट रही थीं, तभी उनके पिता की नजर उन पर पड़ी. उन्होंने सावित्रीबाई के हाथों से किताब छीनी और बाहर फेंक दी. यही वो लम्हा था जब उन्होंने तय किया कि कुछ भी हो जाए वो खुद को शिक्षित जरूर करेंगी. और ऐसा ही हुआ.
स्कूल गईं तो लोगों ने पत्थर फेंके
स्कूल जाने का फैसला सावित्रीबाई के लिए आसान नहीं था. वो जिस माहौल रह रही थीं, वहां लड़की का स्कूल जाना बहुत बड़ी बात होती थी. यही वजह रही कि स्कूल का सफर उनके लिए मुश्किल रहा. जब वो स्कूल जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर फेंकते थे. गंदगी फेंकते थे. उनकी लगन के आगे भेदभाव और कुरीतियों ने भी हार मान ली. वो अपने लक्ष्य की तरफ तेजी से बढ़ती रहीं और पढ़ाई पूरी की.
पुणे में खोला देश का पहला महिला स्कूल
पढ़ाई पूरी करने के बाद फैसला लिया कि कोई बेटी अनपढ़ न रहे, इसके लिए उन्होंने पति ज्योतिबा राव फुले के साथ मिलकर 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला. यह पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल था. उन्होंने लड़कियों के लिए कुल 18 स्कूल खोले. इतना ही नहीं, उन्होंने विधवा और बलात्कार पीड़िताओं के लिए विशेष गृह बनवाए.
एक बार एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई आत्महत्या करने जा रही थी. उसे आत्महत्या करने से रोका. अपने घर में उसकी डिलीवरी कराई. उसके बेटे तो नाम दिया यशवंत और उसे गोद लिया. यशवंत राव की परवरिश की और उन्हें डॉक्टर बनाया.
उनका पूरा जीवन लोगों को उनके अधिकार दिलाने और उनकी मदद करने के लिए समर्पित रहा. 1890 में पति की मौत के बाद उनके अधूरे कामों को पूरा करने का संकल्प लिया. 10 मार्च, 1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान उनकी मौत हो गई.