
मैंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक किया है और लखनऊ विश्वविद्यालय से परास्नातक कर रहीं हूं। मैं आजाद ख्यालों वाली लड़की हूं। समाज की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। समाज में व्याप्त रूढ़ियों और विषमताओं को खत्म कर समाज में समानता लाना अपना कर्तव्य समझती हूं। हिंदी साहित्य में घोर दिलचस्पी है अपना खाली समय किताबों के साथ बिताती सौखियां कविताएं लिखती हूं।
लोकतंत्र में महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए न्यायालय ही गुहार लगाती है। लैंगिक समानता की लड़ाई के लिए जो आवाज़ उठाती उसके हित में आने वाले अदालतों के फैसले उसे और मज़बूत करते हैं। इस साल कई ऐसे फैसले अदालत और सरकार की और से लिए गए जो महिलाओं के बतौर नागरिक अधिकारों का सरंक्षण करते है।

अनेक पूर्वाग्रहों और रूढ़िवादिता से घिरे समाज में न्याय व्यवस्था एक आम इंसान की सबसे बड़ी उम्मीद होती है। एक लोकतंत्र में लैंगिक समानता की लड़ाई के लिए जो आवाज़ उठती है उसके हित में आनेवाले अदालतों के फै़सले उसे और मज़बूत करते हैं। इस साल कई ऐसे फैसले अदालतों की ओर से लिए गए जो महिलाओं के अधिकारों का सरंक्षण करते हैं। इस लेख में हम बात करेंगे साल 2022 के उन फैसलों के बारे में जिन्होंने लैंगिक समानता के संघर्ष को मज़बूत किया।
1. टू फिंगर टेस्ट- पितृसत्तात्मक मानसिकता पर आधारित टू फिंगर टेस्ट पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक
बलात्कार के लिए टू-फिंगर टेस्ट को झारखंड राज्य बनाम शैलेंद्र कुमार राय उर्फ पांडव राय मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गैरकानूनी घोषित किया गया। अदालत ने बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों में टू फिंगर टेस्ट के उपयोग की निंदा की। कोर्ट ने कहा था कि ऐसे परीक्षण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, इसके बजाय यह महिलाओं को फिर से आघात पहुंचाता है। अदालत ने कहा था कि सच्चाई से आगे कुछ भी नहीं हो सकता है यह तय करने में कि क्या आरोपी ने उसका बलात्कार किया है और यहां एक महिला का यौन इतिहास पूरी तरह से महत्वहीन है। कई बार एक महिला पर विश्वास नहीं किया जाता है जब वह बताती है कि उसके साथ बलात्कार किया गया, सिर्फ इसलिए कि वह यौन रूप से सक्रिय है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ऐसे परीक्षण करने वाला कोई भी व्यक्ति कदाचार का दोषी होगा। न्यायालय ने केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी तीन दिशा-निर्देश जारी किए। जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड और जस्टिस हेमा कोहली की पीठ ने यह फैसला सुनाया था।
2.आरोप पत्र दाखिल करने से पहले बलात्कार सर्वाइवर के बयान का खुलासा नहीं किया जाना चाहिए
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक मामले में कहा कि जब तक आरोप पत्र या अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की जाती है, धारा 164 सीआरपीसी के अनुसार बलात्कार सर्वाइवर के बयान को आरोपी सहित किसी को भी नहीं बताना चाहिए। एससी बेंच ने आगे सिफारिश में कहा कि उच्च न्यायालय आपराधिक अभ्यास और परीक्षण नियमों को इस तरह से बदलते या संशोधित करते हैं जो निर्णयों के निर्देशों के अनुरूप प्रावधानों को शामिल करते हैं। परिणामस्वरूप न्यायालय ने वकील की राय से सहमति व्यक्त की कि विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा स्थापित अभ्यास नियमों में पूर्वोक्त निर्णयों में बताए गए कानूनी सिद्धांतों के अनुरूप खंड शामिल और शामिल होने चाहिए।
3.केरल उच्च न्यायालय ने बेटे को दस्तावेज़ में अविवाहित मां का नाम अकेले रखने की अनुमति दी
केरल हाई कोर्ट ने एक व्यक्ति को उसके जन्म प्रमाणपत्र, पहचान पत्र और अन्य दस्तावेजों में केवल उसकी माँ का नाम इस्तेमाल करने की अनुमति दी है। केरल उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक व्यक्ति को अपने दस्तावेज़ो में अपनी मां का नाम इस्तेमाल करने का अधिकार है। इस मामले में याचिकाकर्ता की माँ नाबालिग उम्र में गर्भवती हो गई थी। याचिकाकर्ता की माँ उस वक्त अविवाहित थीं इसलिए अलग-अलग दस्तावेजों में उनके पिता का नाम अलग-अलग दर्ज किया गया है। इस संदर्भ में अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अविवाहित माँ का बच्चा भी इस देश का नागरिक है और कोई भी उसके मौलिक अधिकारों का उल्लघंन नहीं कर सकता है, जो उसे भारतीय संविधान की तरफ से दिए गए हैं। अदालत ने यह भी कहा है कि केरल हाई कोर्ट सरकार को आदेश देता है कि जो पिता के नाम से संबधित जानकारी नहीं उपलब्ध करा सकते हैं उसके लिए अलग से एक फॉर्म हो जिसमें पिता से संबंधित जानकारी की मांग न हो। अदालत ने यह भी कहा कि अविवाहित माताओं और बलात्कार सर्वाइवर के बच्चों को निजता, स्वतंत्रता और सम्मान के मौलिक अधिकारों के साथ इस राष्ट्र में रहने का अधिकार है।
4. सभी महिलाओं को अबॉर्शन का है समान अधिकारः सुप्रीम कोर्ट
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सभी महिलाओं, चाहे विवाहित हों या अविवाहित, सभी को गर्भावस्था के मेडिकल टर्मिनेशन एक्ट, 1971 (एमटीपी एक्ट) के प्रावधानों के अनुपालन में 24 सप्ताह तक अबार्शन कराने का समान अधिकार है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने कहा विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच कृत्रिम अंतर को बनाए नहीं रखा जा सकता है। महिलाओं को इन अधिकारों का स्वतंत्र रूप से उपयोग करने की स्वायत्तता होनी चाहिए।” अदालत ने कहा कि अविवाहित महिलाओं को अबॉर्शन की समान पहुंच से वंचित करना भारत के संविधान के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। इस मामले में पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने एक अविवाहित महिला होने की वजह से वह एमटीपी एक्ट कानून के दायरे में नहीं आती।
5. सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू परिवार, अविवाहित जोड़ों एवं एलजीबीटीक्यूए+ समुदाय को भी दिया परिवार की अवधारणा
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि अविवाहित जोड़े और क्वीयर रिलेशनशिप को भी परिवार माना जा सकता है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड और जस्टिस एएस बोपाना की बेंच ने कहा कि घरेलू, अविवाहित जोड़े और क्वीयर रिलेशनशिप, अडॉप्शन, दोबारा शादी सभी पारिवारिक रिश्ते हैं और कानून को इन्हें स्वीकार करना चाहिए। इस मामले में कहा गया कि कानून और समाज दोनों में ‘‘परिवार’’ की अवधारणा की प्रमुख समझ यह है कि ‘‘इसमें मां और पिता (जो कि आजीवन संबंध है) और उनके बच्चों के साथ एक एकल, अपरिवर्तनीय इकाई होती है।’’ कोर्ट ने कहा कि ‘‘ कई परिस्थितियां है जो किसी के पारिवारिक ढांचे में बदलाव ला सकती हैं, और यह तथ्य कि कई परिवार इस अपेक्षा के अनुरूप नहीं हैं। पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित जोड़े या क्वीयर रिलेशनशिप का भी रूप ले सकते हैं।’’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित सहजीवन या क्वीयर रिश्ते के रूप में भी हो सकते हैं। साथ ही अदालत ने उल्लेख किया कि एक इकाई के तौर पर परिवार की ‘असामान्य’ अभिव्यक्ति उसके पारंपरिक समकक्ष के रूप में वास्तविक है और कानून के तहत सुरक्षा के योग्य है। ऐसे परिवारों तक भी समान न्याय पहुंचाना चाहिए।
6.किसी महिला को प्रजनन करने या ना करने के विकल्प के अधिकार पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है
केरल उच्च न्यायालय ने एक 23 वर्षीय कॉलेज छात्रा को यह कहते हुए उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दी कि महिलाओं को संतान पैदा करने या न करने की स्वतंत्रता है। उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने एक एमबीए छात्रा के 27 सप्ताह के गर्भ को चिकित्सकीय रूप से समाप्त करने के अनुरोध को सुनने के बाद यह निर्णय लिया। अदालत ने घोषणा की, “एक महिला की प्रजनन करने या न करने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता है।” इस मामले में महिला को किसी भी अस्पताल में मेडिकल टर्मिनेशन एक्ट के साथ अबॉर्शन कराने की इजाजत दी गई है।