
भले ही दौर बदलता रहता हो लेकिन कला-संस्कृति हमेशा जिंदा रहती है। हाँ, वक्त़ के साथ-साथ इसमें भी बदलाव होने लाज़िमी है। ऐसी ही एक पारंपरिक कला है कठपुतली। राजा-महाराजों के किस्सों और नाच-गान दिखाने वाली कठपुतियों को हम अक्सर राजस्थान से जोड़ कर देखते हैं। इसके बहाने इतिहास और पुराने किस्सों को जानते है। लेकिन कला और कलाकार की कोई सीमा नहीं होती है ठीक वैसे तरह जैसे आसमान अंतत है।
कठपुतली एक पुरानी और क्षेत्रीय अंचल की कला मानी जाती है। जिसके द्वारा माध्यम से लोगों को सूचनाएं दी जाती है। कठपुतली मनोरंजन का एक साधन भी मानी जाती है। समय व ज़रूरत के साथ वह सूचना का एक लोकप्रिय माध्यम भी बनी। पुराने समय में कठपुतली जनता की बात रखने का एक सशक्त माध्यम बन गई। कठपुतली कला के माध्यम से लोगों को शिक्षित किया गया लेकिन समय के साथ ये कला भी अन्य पारंपरिक कला की तरह आधुनिक संचार माध्यमों की पहुंच की वजह से पिछड़ गई। लेकिन कुछ संगठन और कलाकार इस पारंपरिक कला को बचाने और आधुनिक समय में इससे संवाद करने का काम कर रहे हैं।
कठपुतलीकारों के सामने जीवनयापन और राजनीति की वजह से ये मनोरंजन की तरफ ज्यादा चला गया। मैंने खुद 12 साल की उम्र में कठपुतली का शो करना शुरू कर दिया था लेकिन 17 साल की उम्र में मैंने निराश होकर अपनी कठपुतली को जला भी दिया था क्योंकि मुझे लगता था कि कठपुतली की कला को लोग समझते नहीं है।
आज के फोन और इंटरनेट के दौर में कठपुलती कला को जिंदा रखने वाले और समय के साथ इसे और प्रासंगिक बनाने के लिए लगातार काम करने वालो में से एक नाम रामलाल भट्ट हैं। रामलाल भट्ट एक पारंपरिक कठपुतली कलाकार हैं। उन्होंने यह कला अपने पिता से सीखी थी। वह मूल रूप से राजस्थान के रहने वाले है लेकिन पिछले तीस सालों से अधिक उत्तराखंड में रहकर कठपुतलियों के माध्यम से कई सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर लोगों को ज़ागरूक कर रहे हैं। राजस्थान से आने के बाद उन्होंने उत्तराखंड के परिवेश और संस्कृति पर आधारित यहां की कठपुतलियां तैयार की।
विशेष तौर पर वह उत्तराखंड के दो क्षेत्रीय भाग गढ़वाल और कुमाऊं को लेकर उन्होंने नई कठपुतलियां तैयार की है। इसकी एक वजह ये ही है कि जिससे वे वहां की भाषा और परिवेश की वजह से लोगों को उनके साथ जोड़ पाएं। उनकी भाषा और सांस्कृति के साथ-साथ उनके वर्तमान के मुद्दों के बारे में जागरूक कर सकें। रामलाल ने कठपुतली को नई पहचान देने के लिए उनका रूप बदल दिया है पारंपरिक परिधान और किरदार से अलग उनकी कठपुतलियां मौजूदा परिवेश में प्रगतिशीत सोच को जाहिर करती है।
फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करते हुए कठपुतली कलाकार रामलाल भट्ट का कहना हैं, “ये कठपुतली इतिहास के किस्सों से अलग संविधान, लोकतंत्र, पर्यावरण, स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, जेंडर, और एलजीबीटीक्यू+ जैसे मुद्दों पर लोगों के साथ संवाद करती दिखती है। वे अपनी कठपुतली से सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित कर उन्हें समय में विस्तारित करने का काम कर रहे हैं। रामलाल भट्ट जैसे कलाकार ने सूचना के इस माध्यम को आधुनिक समय में नये रूप में लोगों से संवाद करने पर जोर दिया है।
काफी पहले समय से ही कठपुतली सूचना देने का काम करती आई है। कठपुतली पहले से ही आखिरी आदमी की बात करती आई है लेकिन बाद में ख़ासतौर से शहरों में आकर कठपुतली एक मनोरंजन का साधन बनी। इसकी एक वजह यह है कि कठपुतली कलाकारों में शिक्षा की कमी और उनको स्पेस न मिलना है। लेकिन पुराने जमाने से ही कठपुतली अपने किरदारों के साथ मुद्दों की बात करती रही है क्योंकि ये किरदार जुलाहा, लौहार, सैनिक, धोबी, नृत्यकार जैसे रहे हैं। इन किरदारों की वजह से हर वर्ग के लोगों की उनके जीवन की बात होती है। कठपुतली हमेशा से जीवन संस्कृति की बात करती रही है लेकिन आज इसके बारे में कोई बात नहीं करता है। आज कम्प्यूटर की बात होती है लेकिन स्किल लोगों की बात नहीं होती है। यही वजह है कि स्किल लोगों की जीवन आय के बारे में न चर्चा होती है न उनके उत्थान के लिए कुछ सोचा जाता है।
कठपुतलीकारों के सामने जीवनयापन और राजनीति की वजह से ये मनोरंजन की तरफ ज्यादा चला गया। मैंने खुद 12 साल की उम्र में कठपुतली का शो करना शुरू कर दिया था लेकिन 17 साल की उम्र में मैंने निराश होकर अपनी कठपुतली को जला भी दिया था क्योंकि मुझे लगता था कि कठपुतली की कला को लोग समझते नहीं है। इसमें जाति है लोग इसे दोयम दर्ज की कला समझते है। जैस शास्त्रीय संगीत को सम्मान मिलता है वैसे फोक कल्चर को नहीं मिलता है तो ये सब मुद्दे मेरी जिंदगी में हावी हुए। लेकिन मुझे एक मौका दोबारा मिला जिससे कठपुतली कला को वैसे ही जिंदा रखा जा सके जैसे इसकी शुरुआत थी।
राजस्थान की बेयरफुट कॉलेज की संस्थान मेरे जीवन में आई इन्होंने मुझसे कहा कि कठपुतली एक माध्यम बन सकती है। अपनी बात तुम इसके माध्यम से कह सकते हो। सामाजिक बदलाव के लिए ये एक बहुत अच्छा माध्यम बन सकता है। उस समय लोगों के पास टीवी कम थे, मनोरंजन के साधन कम थे। कठपुतली बहुत पुराना विजुअल मीडिया रहा है तो वहां मुझे बातें थोड़ी पढ़ने और समझने को मिली। उसके बाद फिर मैंने जो सामाजिक कुरीतियां है जैसे जाति, भेदभाव इन मुद्दों पर बात की। इसके बाद मैं उत्तराखंड में आ गया। साल 1989 में उत्तराखंड में आने के बाद मुझे लगा कि पर्यावरण एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। फिर मैंने इस पर काम किया।