रुपम मिश्ना
राला की एक प्रसिद्ध कविता है, “वह तोड़ती पत्थर” कविता के मध्य में एक पंक्ति आती है: “देखकर कोई नहीं, देखा मुझे उस दृष्टि से , जो मार खा रोई नहीं।” यह जो पंक्ति है, “मार खा रोयी नहीं” मैं अवध की स्त्रियों की समूची अस्मिता को निराला की इसी पंक्ति के सार में देखती हूं। जिन बातों पर राज्य और समाज को शर्मिंदा होना चाहिए उसके लिए भी क्या स्त्रियां ही शर्मिंदा हो। पूंजी और व्यवस्था अपनी सुविधानुसार उनको कहीं भी रख देना चाहती है वस्तु की तरह और जब वे उसमें लड़खड़ाती हैं तो यही लोग उस पर सवाल भी करने लगते हैं। हालांकि, यह लड़खड़ाहट सत्ता की ही बनाई हुई परंपरा और रूढ़ियों के कारण होता है
जब अवध में पंचायती चुनाव हो रहे थे तो महिला उम्मीदवारों को लेकर कई खबरें सोशल मीडिया पर मीम की तरह घूमती रहीं। इनमें ग्रामीण महिला उम्मीदवारों की योग्यता को लेकर बहुत से सवाल उठ रहे थे। लेकिन जब हम थोड़ा सा गंभीर होकर सोचते हैं तो सवाल स्त्री पर नहीं राज्य की सत्ता पर सदियों से उनकी अस्मिता पर काबिज मर्दवादी समाज पर उठते हैं। देखा गया कि ग्रामीण महिला उम्मीदवारों के नामांकन के दिन ब्लॉक पर जब वे अपने अपने नामांकन की औपचारिक शर्तों को पूरी करने के लिए आई तो मीडिया के कुछ पत्रकारों ने उनसे इस चुनाव से जुड़े सामान्य से सवाल किए। जैसे प्रदेश के राज्यपाल का क्या नाम है, चुनाव आयोग का अध्यक्ष कौन है, आपके जिले के जिलाधिकारी का क्या नाम है। इसी तरह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का नाम भी पूछा गया जिसका वे जवाब नहीं दे पाई।
सवाल सामान्य ही थे लेकिन उन महिला उम्मीदवारों ने एक भी जवाब इस तरह नहीं दिया जिससे ये साबित होता कि वह एक जिम्मेदार नागरिक हैं। हो सकता है बहुत सारे लोगों को ये बात बहुत अचरज़ की लगे लेकिन इस जमीन को करीब से जानने वालों अचरज नहीं होगा क्योंकि यही सच है अवध की स्त्रियों का। कई सारे वीडियो दिखे जो एक नज़र देखने पर हास्यास्पद लग रहे थे लेकिन जैसे संवेदना न्याय की तरफ घूमती सब कुछ कारुणिक और विडम्बना से भरा रह जाता है।
मैं जहां रहती हूं उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील की बात है। अपनी ही पंचायत की एक पढ़ी-लिखी स्त्री जिसने इतिहास विषय से परास्नातक किया है पंचायती चुनाव में उम्मीदवार है। इसके पहले उनके पति ग्रामपंचायत के प्रधान थे। इस बार यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित वर्ग में है तो मजबूरी में उन्होंने अपनी पत्नी के नाम से नामांकन किया है। यह महिला उम्मीदवार अपने पति से कहीं ज्यादा शिक्षित है और एक मानवीय मूल्यों को लेकर उनकी अपनी संवेदनात्मक समझ भी , इन सबके मैं बावजूद मैं देख रही थी वो जहां भी जाती गाँव की महिलाओं से वोट मांगने तो उन्हें भरोसा दिलाती कि प्रधान उनके पति ही रहेंगे, वही पंचायत का सब काम देखेंगे मैं तो बस इसलिए हूं कि सीट महिला उम्मीदवार की थी और महिलाएं इस बात से खुश हो जातीं। अब इसमें ये देखना है कि क्यों वह महिला उम्मीदवार एक जो सच है जमीन का और संवैधानिक रूप से गलत उस बात का इस तरह महिमामंडन कर रही हैं। जवाब वही है क्योंकि समाज में पुरुष क्या स्त्रियां तक स्त्रीद्वेषी हैं, वे नहीं चाहती कि पारम्परिक सत्ता या कोई भी सत्ता हो स्त्री उसपर काबिज़ हो या उनके ही बीच की कोई स्त्री पुरुषों के लिए बने किसी पद पर आसीन हो।
तमाम बहसों और वैचारिक उद्विग्नताओं के बावजूद यदि स्त्री समाज में अपनी यथास्थिति से नहीं उबर पा रही है तो यह हमारी सामाजिक संरचना के उथलेपन की निशानी है। इसी उथलेपन को लेकर अपनी कविताओं में विक्षुब्ध होती हैं, तंज कसती हैं और औरत की असली आजादी के लिए संघर्षशील रहती हैं। पूरे ग्रामीण समाज में पंचायती चुनाव में स्त्रियों की तथाकथित भागीदारी को छिपाया नहीं शान से बताया जाता है। पूरा चुनाव सिर्फ महिलाओं के हस्ताक्षर और पोस्टर में लगी तस्वीर भर की भागीदारी में होता है। जबकि मैं जब मैं स्त्रियों से बात करती हूं शहरी, गंवई, कस्बाई, पढ़ी-लिखी या कम पढ़ी-लिखी या एकदम अनपढ़ तो मुझे ये देखकर अचरज हुआ कि चेतना के स्तर पर वे पुरुषों की तरह कट्टर नहीं हैं या हम सब जानते हैं जैसी गर्वीला बोध नहीं है। कुछ बहसें और अपनी बात वो करेंगी लेकिन अधिकार और न्याय की बात पर वो पुरुषों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील। भले वो एकदम से मुक्ति का न हो लेकिन वो उस दुनिया की बातें जानना चाहती हैं जो गैरबराबरी और न्याय की बात करता है जो पर्यावरण या धरती बचाने की बात करता है।