रूपम मिश्रा
भारत में नारीवाद को कितनी स्त्रियां जानती हैं इस बात को मैं प्रश्न की तरह नहीं पीड़ा की तरह सोचती हूं। मैं जब से स्त्री चिंतन को कुछ-कुछ जानने लगी हूं तब से इसके बारे में और जानने वालों को ढूंढती हूं, लेकिन ज्यादातर मैं निराश होती हूं। इस मुद्दे को जानने वाले बस एक समूह में मुठ्ठीभर लोग ही मिलते हैं। यह बात बस गंवई जीवन या देहाती, कस्बाई लोगों की नहीं है। शहरों में भी मैं ऐसे लोगों को टटोलती हूं और निराश होती हूं जो लोग आइडेंटिटी के अन्य चिंतनों को जानते हैं, वे भी नारीवाद को नहीं जानते।
कभी कुछ लोग मिलते हैं, जो इस विषय को कुछ शब्दों से जानते हैं। इसमें पढ़े-लिखे शहरी ,ग्रामीण शिक्षित वर्ग भी शामिल हैं। मैं यहां किसी आंकड़े पर बात नहीं कर रही हूं, जितना जानने की कोशिश की उसके आधार पर बता रही हूं। अगर किसी के अनुभव इससे इतर हो तो वह एक सुखद बात होगी।
ऐसा नहीं है कि नारीवाद का कोई व्यवहारिक रूप नहीं है। समाज में जो बदलाव हुआ है स्त्री शिक्षा आदि में नारीवाद का व्यवहारिक रूप ही है। लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर उस बड़े समूह में बेचैनी नहीं दिखती, वह चेतना नहीं दिखती जिसकी दरकार थी। मैं केवल नारीवाद शब्द जानने भर की बात नहीं कर रही हूं। इस लेख में मैंने कई गंवई, कस्बाई महाविद्यालयों में पढ़नेवाली, कुछ कॉलेज जानेवाली लड़कियों, नौकरीपेशा लड़कियों से हुई बातचीत के कुछ हिस्से को रखा है।
एक परिचित लड़की जो कि पेशे से इंजीनियर है, रहन-सहन में एकदम आधुनिक, मैं उससे नारीवाद को लेकर बात करना चाहती थी। लेकिन पूछने पर पता चला कि इस शब्द से ही परिचित नहीं है। एक और लड़की जो कि पेशे से डॉक्टर है और मुंबई में रहती है उससे जब मैंने इस बारे में पूछा तो निराशा ही हाथ लगी। वह भी नारीवाद शब्द को नहीं जानती थी। उसने मुस्कुराकर कहा कि मैं साहित्य की बात कर रही हूं।
मैं नारीवाद को जानने की बात इसलिए करती हूं क्योंकि यह अपनी अस्मिता की चेतना में जाने का प्रारंभिक मार्ग होता है। इसके बारे में न जानने का भी परिणाम होता है कि स्त्री खुद ही पितृसत्तात्मक सोच की संचालिका बनकर आजीवन उसमें फंसी रहती है और अन्य स्त्रियों को बांधकर रखना चाहती है।
उत्तर प्रदेश के जिस गाँव में मैं रहती हूं वहां से 15 किलोमीटर दूर है बदलापुर। वहां के सल्तनत बहादुर डिग्री कॉलेज में एक दिन मैं कुछ लड़कियों से बातचीत करने लगी। मैंने पाया कि लड़कियां भले ही इस शब्द से परिचित नहीं थीं लेकिन वे इस शब्द पर बात करना चाहती थीं। जब मैंने कहा कि एक शब्द है नारीवाद क्या वे इससे परिचित हैं, तो सबने इनकार किया। लेकिन जब मैंने कहा कि महिलाओं के अधिकारों को लेकर पूरी दुनिया में एक बहस चल रही है क्या इस विषय को वे जानती हैं तो कुछ- कुछ बातें उन्होंने साझा कीं। इनमें महिलाओं को सरकार द्वारा कैसे सशक्त किया जा रहा है, औरतों के हितों पर काम हो रहा है आदि।
मैं नारीवाद को जानने की बात इसलिए करती हूं क्योंकि यह अपनी अस्मिता की चेतना में जाने का प्रारंभिक मार्ग होता है। इसके बारे में न जानने का भी परिणाम होता है कि स्त्री खुद ही पितृसत्तात्मक सोच की संचालिका बनकर आजीवन उसमें फंसी रहती है और अन्य स्त्रियों को बांधकर रखना चाहती है। इसे न जानना बहुत बड़ा नुकसान है चेतना के स्तर का। अब एक बात इसके साथ आती है कि नारीवाद को कहां तक जानना और समझना चाहिए। ये बहुत ही ज़रूरी बहस है क्योंकि जब तक हम इसकी परतों को गहराई से नहीं देखेंगे, बस सतही तौर पर जानेंगे तो खुद के हित की दिशा का मार्ग समाज को अंधेरे की तरफ ही ले जाएगा।
यहां अस्मिता जानने की बात का आशय बस इतना नहीं कि हम अपनी ही अस्मिता जानें। हाशिये के दूसरे लोगों की अस्मिता और संघर्ष को जानना आवश्यक है, नहीं तो नारीवाद की बहस संकुचित रहेगी। यह लगातार दिख रहा है कि आज़ादी और आइडेंटिटी की बात करते हुए हम वर्ग, जाति आदि के प्रश्न को अनदेखा कर रहे हैं।