नीलम गुप्ता ने इला भट्ट के साथ अपने 37 साल पुराने परिचय और इस दौरान की उनके साथ की कई यादें साझा की हैं। इला भट्ट का 2 नवंबर, 2022 को निधन हो गया था।
नीलम गुप्ता
इला भट्ट से मेरा पहला परिचय 1985 में जयपुर में हुआ। तब उन्हें मेगासस पुरस्कार मिल चुका था और एक महिला संगठन ने उन्हें जयपुर में महिला दशक के मौके पर बुलाया था। मैं उनसे बहुत प्रभावित थी क्योंकि मैं कोशिश करके भी एक कबाड़ी महिला का बैंक में खाता नहीं खुलवा सकी थी और उन्होंने ऐसी ही गरीब घर व सड़क पर काम करने वाली बहनों के लिए एक पूरा बैंक ही खुलवा दिया था..सेवा बैंक।इसके बाद मेरी उनसे मुलाकात दिल्ली में हुई। तब मैं जनसत्ता में आ चुकी थी और वे राज्यसभा सांसद थी। मैं अपने संपादक प्रभाष जोशी की अनुमति से उनका एक इंटरव्यू लेने गई। उसके कुछ दिन बाद प्रभाष जी ने मुझ से कहा- इला बेन ने तुमको बुलाया है। जाकर मिल आओ। मैं गई और उन्होंने पूछा- सेवा की एक पत्रिका निकलती है अनसूया। उसके दस साल पूरे हो रहे है। क्या तुम उसके दस साल के अंकों का रिव्यू करोगी?
मेरे लिए यह एकदम अलग तरह का काम था। फिर भी मैंने कहा-‘ठीक है आप मुझे अनसूया दिखा दीजिए। उन्होंने कुछ अंक मेरे हाथ मे तुरंत पकड़ा दिए। इसके बाद मैंने दस साल के अंको को रिव्यू किया। यह एक तरह से सेवा और उसके काम व विचार से मेरा सीधा परिचय था। तब मैंने पहली बार जाना कि अपने गांव में जिन बहनों को मैं सूत कातते या दरी-खेस बनाते देखती रही हूं उन्हीं जैसी सब बहनों को इला बेन ने किस तरह संगठित कर एकदम अहिंसक तरीके से, सच के बल पर अपने हकों की लड़ाई करना और उसे जीतना सिखाया है।
1972 में सेवा की शुरूआत हुई ही इस बात को लेकर थी कि अहमदाबाद में कपड़ों की मिलों के मालिक कपड़े की गांठों को एक से दूसरी जगह ले जाने के काम की महिलाओं को बहुत ही कम मजदूरी देते थे। मजदूर महाजन संघ में इला बेन ने इस मुद्दे को उठाया पर उसमें कुछ सुनवाई नहीं हुई। तब उन्होंने महाजन संघ से अलग सेल्फ एंप्लायड वूमैन एसोसिएशन (सेवा) की स्थापना की और उन सभी महिलाओं को संगठित कर पहले उन्हें अपने एकजुट होने का अहसास करवाया, उनके आत्म बल को बढ़ाया और फिर मिल मालिकों के सामने खड़े हो अपने हकों की लड़ाई के गुर सिखाए।
उसके बाद से तो सेवा में असंगठित क्षेत्र की महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ती ही चली गई और इसी साल 12 अप्रैल को जब सेवा ने अपने पचास साल पूरे किए तो उसकी सदस्य संख्या 22 लाख के पार जा चुकी थी। 64 से ज्यादा उसकी सहकारिताएं काम कर रही हैं और आधुनिक डिजीटल तकनीक से वे पूरी तरह लैस हैं। पचास साल के इस उत्सव पर इला बेन ने एक बरगद का पौधा रोपा था जो इस बात का प्रतीक था कि सेवा की जड़े एक बरगद के पेड़ की तरह अपने आप जमीन तक जाकर फिर ऊपर आती रहेगी। वह कभी समाप्त या कमजोर नहीं होगी।
इसके साथ ही उन्होंने अपनी बहनों को कुछ गुर दिए थे जिनमें से प्रमुख थे -संगठन, सत्य और सहकारिता। अहिंसा को वे इसमें अंतर्निहित मानती थीं। दो हजार से ज्यादा संख्या में भाग लेने वाली सदस्य बहनों ने भी क्या संकल्प लिया था-‘एक करोड़ होकर रहेंगे। सौ साल पूरे करेंगे।’ अप्रैल 12 को अहमदाबाद के सरदार पटेल भवन में सेवा की जो बहनें जोर-शोर से नाच गा रही थीं और इला बेन के साथ 50 साल पूरे होने का उत्सव मना रही थीं आज उन सबकी ही नहीं, दूर दराज गावों में बैठी लाखों सेवा बहनों और उनके परिवारों के सदस्यों की आंखे भी नम हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वे कैसे अपनी इस अनूठी मां को श्रद्धांजलि दें। इला बेन ने असंगठित क्षेत्र की केवल गरीब महिलाओं को ही नहीं उनके पूरे परिवारों को आत्मनिर्भर बनाया था। आखिरी समय तक ये महिलाए हमेशा उनकी पहली चिता थी।
पर उनका संघर्ष मात्र इतना ही नहीं था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर श्रम क्षेत्र में आज सेवा की धाक है तो उसके पीछे इला बहन की ओर से रोपी गई जड़े ही हैं। मुझे याद है कैसे इस्तांबुल में संयुक्तराष्ट्र के वल्र्ड हैबिटैट सम्मेलन में इला भट्ट अपनी मजदूर बहनो की टीम के साथ मंच पर आईं तो पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। मैंने जब पूछा-इतने लीडर्स बोलने के लिए आए पर तालियों की गूंज आपके लिए ही क्यों थी तो उनका जवाब था-मेरे लिए नहीं यह इन बहनों के लिए थी जो यहां आई हैं। और अगर आप सोच रहे हैं कि वहां भाषण इला बेन ने दिया तो बता दूं कि नहीं। उसकी महासचिव, जो एक कामगार महिला ही थी, ने गुजराती में बोला और अंग्रेजी में उसका अनुवाद किया गया।
असंगठित क्षेत्र की होमबेस्ड कामगार महिलाओं के लिए राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कभी कोई कानून नहीं था। इला भट्ट ने पहली बार संयुक्त राष्ट्र के आईएलओ संगठन में यह मुद्दा उठाया और कई साल के प्रयासों के बाद वे अपने लक्ष्य में कामयाब हुईं। उनकी सामाजिक सुरक्षा के लिए भी कानून बने और भारत सरकार ने उन्हें मान्यता दी। आज जब श्रम से व्यक्ति को बाहर निकाल तकनीक व लाभ को प्रमुखता दी जा रही है, सेवा का प्रयास है कि श्रम कानूनों के केंद्र में फिर से व्यक्ति को ही लाया जाए। अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन भारत की यात्रा पर आईं तो सेवा, अहमदाबाद को अपने दौरे में खासतौर से शामिल किया। वे देखना चाहती थीं कि सेवा गरीबों को कर्ज व स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाएं कैसे दे पा रही है। उसके बाद सेवा की उन्होंने अमेरिका में भी शुरूआत की।
एशिया स्तर पर असंगठित होमबेस्ड बहनों के संगठनों की सेवा ने नेटवर्किंग की जो ऑनलाइन मार्किटिंग में खासतौर से मददगार साबित हो रही है। कमजोर बहनों को मजबूत व आत्मनिर्भर बनाने के सेवा के काम से प्रभावित होकर ही अफगानिस्तान में काम कर रही भारत सरकार ने उसे वहां भेजा और कुछ साल के भीतर ही सेवा ने अफगान कामगार बहनों के चार पांच बड़े संगठन खड़े कर दिए। वह भी तालिबानों के हमलों के बीच। अमेरिकी फौजों के तालिबानों को सत्ता सौंपने के समय करीब दस हजार अफगान महिलाएं सेवा के सहयोग से अपने-अपने रोजगार चला रही थीं।
इला भट्ट ने सेवा के महासचिव का पद कई साल पहले ही छोड़ दिया था। पर शायद ही कोई दिन ऐसा रहा हो जब वे सेवा की मीटिंग में शामिल न होती हों। देश विदेश से उनसे मिलने आने वालों की कतार हमेशा लगी ही रहती थी और वे शायद ही किसी को मना करती थीं फिर चाहे कितनी भी थकी हुई क्यों न हों। कर्मठता तो उनकी मैं शुरू से ही देख रही थी पर उस दिन तो मैं उसकी कायल हो गई जब उनके एक गुजराती लेख का अनुवाद करते हुए वे मेरे साथ लगातार पाच घंटे बैठी रहीं। मेरे- बाकी कल कर लेंगे के- अनुरोध के बावजूद उन्होंने एक ही सिंटिंग में यह कार्य पूरा करवाया।
उन्हें गांधीयन कहा जाता है मगर वाद शब्द से उन्हें सदैव परहेज ही रहा। पर यहां मैं बताना यह चाह रही हूं कि वे चरखा भी कातती थीं। एक बार अपनी बहन के पास अमेरिका में थीं। बात हुई तो बताने लगीं कि उन्होंने अपनी एक साड़ी का सूत यहां पूरा कर लिया है। अब भारत में आने पर उसे साड़ी बनाने के लिए दे देंगी। इसी दौरे के दौरान उन्होंने बाबरनामा और अकबरनामा भी पढ़ा। 12 नवंबर को अस्पताल में भर्ती होने से पहले वे कृष्ण संबंधी किताबें पढ़ रही थीं। इस बारे में उन्होंने एक मेल कर अपने विचारों की जानकारी भी दी।
बहुत कम लोग जानते हैं कि इला बेन संगीत की भी शौकीन थीं। सेवा के महासचिव का पद छोड़ देने के तुरंत बाद पहला काम उन्होंने यह किया था कि अपने संगीत के गुरू के पास संगीत सीखने लगी थीं। कई सालों से उनका यह सीखना जारी था। आज दो नवंबर 2022 को जब वे अपने प्राण त्याग चुकी हैं और उनकी पार्थिव देह उनके टॉय हाउस में विश्राम (जो उन्होंने कभी किया नहीं) कर रही है, उनके गुरू उनके सम्मान में संध्या काल से उनके सामने बैठ कर अपनी मधुर संगीत लहरियों से उन्हें विभोर कर रहे हैं। नयन तो मेरे भी भीगे हुए हैं पर अभी मैं इला बेन के उस शांत चेहरे को सैंकड़ों मील दूर दिल्ली में बैठे हुए ही, उन भीगे नेत्रों में भर रही हूं।