संध्या रायचौधऱी
विस्थापन के दौरान, परिवारों को अक्सर अलग होना पड़ता है या कर दिया जाता है। इसमें संपत्ति और आजीविका का नुकसान भी होता है। जगह के बदलने से भाषा की समस्या, कानूनी बाधाएं और भेदभाव होने की संभावना बनी रहती है। लेकिन ये सभी बाधाएं और समस्याएं पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को बहुत अलग तरीके से और ज्यादा गंभीर रूप में प्रभावित करती हैं।
अपने आप में एक सार्वजनिक मुद्दा होने के बावजूद, भारत में शिक्षा को दो भागों में बांटा जा सकता है। एक शिक्षा जो हमारे सरकारी स्कूलों में बच्चों को दी जा रही है और दूसरा गैर-सरकारी संस्थानों में दी जानी वाली शिक्षा। भारत में शिक्षा का स्तर लोगों के जेंडर, समुदाय, धर्म, जाति, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हालात या पृष्ठभूमि से जुड़ा है। अच्छी शिक्षा के लिए अच्छे शिक्षकों के साथ-साथ शैक्षिक संस्थानों के बुनियादी ढांचा और बच्चों के सीखने-सिखाने के लिए एक सुरक्षित, समान और अच्छे वातावरण की भी ज़रूरत होती है।
भारत एक ऐसा देश है, जहां हर बच्चे की शिक्षा के अधिकार के लिए मुहिम तो चल रही है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर अच्छी शिक्षा तक पहुंच जेंडर, वर्ग, जाति और धर्म जैसे कई कारकों से प्रभावित है। हमारे देश में महिलाओं और पुरुषों की शिक्षा के स्तर में आज तक व्यापक अंतर बना हुआ है। आज भी महिलाओं की शिक्षा को ज़रूरी नहीं समझा जाता। बड़ी संख्या में आज भी महिलाओं को पढ़ने का कोई अवसर नहीं दिया जाता। अमूमन, आर्थिक तंगी से जूझते हुए परिवारों के लिए लड़कियों को पढ़ाना एक अतिरिक्त खर्च होता है। इसके साथ -साथ, महिलाओं का पढ़ाई न पूरा कर पाने का एक बहुत बड़ा कारण उनका विस्थापन और उसके वजह से हुआ माइग्रेशन यानि पलायन होता है।
विस्थापन के दौरान, परिवारों को अक्सर अलग होना पड़ता है या कर दिया जाता है। इसमें संपत्ति और आजीविका का नुकसान भी होता है। जगह के बदलने से भाषा की समस्या, कानूनी बाधाएं और भेदभाव होने की संभावना बनी रहती है। लेकिन ये सभी बाधाएं और समस्याएं पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को बहुत अलग तरीके से और ज्यादा गंभीर रूप में प्रभावित करती हैं।
युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं के बीच आज विस्थापन सिर्फ कुछ देशों का नहीं बल्कि एक वैश्विक समस्या बन चुका है। लेकिन भारत में विस्थापन का एक बहुत बड़ा कारण गरीबी, रोज़गार की समस्या और महिलाओं के संदर्भ में उनकी शादी है। जहां आम तौर पर हमारे देश में पुरुषों के लिए विस्थापन और पलायन रोज़गार से जुड़ा हुआ होता है, वहीं महिलाओं के लिए यह उनकी शिक्षा, रोज़गार, शादी, परिवार के मर्द सदस्यों द्वारा लिए गए फैसले से जुड़ा हुआ होता है। पितृसत्तात्मक वजहों से अक्सर पलायन के फैसलों में महिलाओं की राय शामिल नहीं होती है।
बच्चों के जीवन में गरीबी पर शोध करने वाली संस्था यंग लाइव्स इंडिया ने साल 2020 में ‘अंडरस्टैंडिंग चाइल्ड माइग्रेशन इन इंडिया‘ नाम की एक रिपोर्ट प्रकाशित की। यह रिपोर्ट बताती है कि साल 2011 के जनगणना के अनुसार, भारत में 455.78 मिलियन प्रवासी हैं जिनमें 67.9 प्रतिशत महिलाएं हैं। बात अगर बाल प्रवासियों की करें, तो इसमें लड़कियों का प्रतिशत 50.6 फीसद था जो लड़कों की संख्या से कहीं अधिक थी। विस्थापन के दौरान, परिवारों को अक्सर अलग होना पड़ता है या कर दिया जाता है। इसमें संपत्ति और आजीविका का नुकसान भी होता है। जगह के बदलने से भाषा की समस्या, कानूनी बाधाएं और भेदभाव होने की संभावना बनी रहती है। लेकिन ये सभी बाधाएं और समस्याएं पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को अधिक गंभीर रूप में प्रभावित करती हैं।
भारत में सीजनल यानि किसी एक समय या मौसम के दौरान पलायन आम है। कई बार पुरुषों या माता-पिता के रोज़गार के लिए किए गए पलायन के बाद बच्चे या महिलाएं पीछे छूट जाती हैं। यह पीछे रह चुके बच्चों विशेष कर महिलाओं की शिक्षा को चुनौती देता है।
क्या है विस्थापन, पलायन और शिक्षा का संबंध
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्थापन मुख्य रूप से कम आय वाले देशों को प्रभावित करता है। इन देशों में भले दुनिया की 10 फीसद आबादी रहती है, लेकिन वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों की आबादी का ये 20 फीसद हैं। ये अक्सर देश के शैक्षिक रूप से वंचित क्षेत्रों में रहते हैं। गौरतलब हो कि जबरन दुनिया में विस्थापित हुए लोगों में आधे से ज्यादा की उम्र 18 साल से कम की है। वहीं, भारत की बात करें, तो यहां बड़ी तादाद में आतंरिक पलायन होता है। आंतरिक प्रवासी अपने ही देश के भीतर, आमतौर पर किसी गांव से शहर की ओर, अपनी आजीविका की खोज में जाते हैं। यह प्रक्रिया एक निश्चित क्रम में चलती रहती है।
पलायन और विस्थापन शिक्षा को गंभीर रूप में प्रभावित करते हैं। पलायन एक ऐसी शैक्षिक व्यवस्था और संस्थानों की ज़रूरत पर ज़ोर देता है, जो उन लोगों को अपना सके, जो पलायन कर दूसरी जगहों में बस चुके हैं या जो पलायन के कारण पीछे छूट जाते हैं। पलायन हाशिये पर रह रहे लोगों की शिक्षा तक पहुंच में एक चुनौती के रूप में काम करता है।
भारत में सीजनल यानि किसी एक समय या मौसम के दौरान पलायन आम है। कई बार पुरुषों या माता-पिता के रोज़गार के लिए किए गए पलायन के बाद बच्चे या महिलाएं पीछे छूट जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर घर के मुखिया और रोज़गार करने वाले की जगह पलायन की वजह से खाली रह जाता है। यह पीछे रह चुके बच्चों विशेष कर महिलाओं की शिक्षा को चुनौती देता है। पितृसत्तात्मक सोच के कारण घर पर बच्चियों की शादी और लड़कों के रोज़गार का दबाव बना रहता है।