किसी भी समाज के निर्माण और विकास में स्त्रियों की भूमिका क्या होगी यह निर्भर करता है किसी संस्कृति में स्त्रियों के प्रति पुरुषों का क्या दृष्टिकोण पाया जाता है उन्हें कौन–कौन से अधिकार प्राप्त हैं विभिन्न क्षेत्रों में उनके क्या–क्या कार्य हैं इन सभी बातों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि हिन्दू समाज में स्त्रियों को अनेक अधिकार प्राप्त थे उनकी सामाजिक स्थिति उच्च रही उन्हें शक्ति, ज्ञान और सम्पत्ति का प्रतीक माना और इसी कारण दुर्गा, सरस्वती एवं लक्ष्मी के रूप में उनकी पूजा होती रही है यहाँ पुरुष के अभाव में स्त्री को और स्त्री के अभाव में पुरुष को अपूर्ण माना गया है इसी कारण हिन्दू समाज में स्त्री को पुरुष का अद्धोगिनी कहा गया है। यहाँ वैदिक और उत्तरवैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के बराबर रही है तथा पुरुषों के समान ही उन्हें सब अधिकार प्राप्त रहे हैं।
धीरे–धीरे पुरुषों में अधिकार प्राप्ति की लालसा बढ़ती गई परिणामस्वरूप स्मृतिकाल धर्मशास्त्र काल तथा मध्यकाल में इनके अधिकार छिनते गए और इन्हें परतन्त्र निस्सहाय और निर्बल मान लिया गया। परन्तु समय ने पलटा खाया। अंग्रेजी शासन काल में देश में राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में जागृति आने लगी। समाज सुधारकों और नेताओं का ध्यान स्त्रियों की स्थिति को सुधारने की ओर गया । इस देश में स्त्रियों को अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए उतना प्रयत्न नहीं करना पड़ा जितना पश्चिम देशों में करना पड़ा।
विकास का अर्थ– साधारण शब्दों में विकास से तात्पर्य गरीबी का अंत उत्पादकता में वृद्धि और परिणामतः सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन की गुणवत्ता में सुधार है विकास को मानकों में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण की व्यवस्था के साथ–साथ जनता की आर्थिक स्थिति में से सुधार, क्रय शक्ति का विकास और कल्याणकारी सामाजिक सेवाओं तक उनकी पहुँच आदि कहे जा सकते हैं। महिला और विकास पर प्राप्त अध्ययन और साहित्य से इस सम्बन्ध में तीन मौलिक धारणाएं स्पष्ट होती हैं–
(1) यह अनुभूति की सभी समाजों में लिंग पर आधारित एक स्पष्ट श्रम–विभाजन मिलता है।
(2) यदि विकास में महिला की भूमिका की गत्यात्मकता को समझना है तो उसके व्यावसायिक काम के साथ–साथ घरेलू उत्पादकता और पुनरुत्पादक कार्यों को समन्वित रूप में देखना आवश्यक है।
(3) यह विदित हुआ है कि आर्थिक विकास का प्रभाव महिला और पुरुष पर भिन्न होता है और अधिकांशतः महिला पर विकास का प्रभाव नकारात्मक ही हुआ है।
(II) महिलाओं की अवस्थिति की अवधारणा– समाज में स्त्री अथवा पुरुष की अवस्थिति उसके द्वारा प्रयुक्त राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की सम्पूर्णता और उनके परिणाम द्वारा निर्धारित, दूसरे शब्दों में किसी भी व्यक्ति की अवस्थिति उस समाज की उसके प्रति धारणा और आत्मानुभूति की ओर अवरोधात्मक अथवा प्रोत्साहन–परक दृष्टिकोण पर निर्भर करती है।
(1) उस व्यक्ति अथवा वर्ग के भूमिका व अधिकार को सीमित किया जा सकता है ।
(2) भूमिका निर्वाह के अधिकारों को नियंत्रित किया जा सकता है।
(3) समाज की भूमिकाओं का आंकलन अलग–अलग है । इस आधार पर महिलाओं की अवस्थिति को एक समाज की महिलाओं की पुरुषों की स्थिति में अथवा अन्य समाजों की महिलाओं की तुलना में स्थिति के रूप में परिभाषित किया जाता है । इस प्रकार यह तुलनात्मक अवधारणा है । फिर भी किसी समाज में महिलाओं की अवस्थिति का उसी समाज में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ढाँचे के रूप में ही आंकलन किया जा सकता है।
उपर्युक्त संदर्भ में महिलाओं की अवस्थिति के निर्धारण में निम्नलिखित बातें उपयोगी हो सकती हैं–
(1) स्त्री पुरुष जीवन–दर
(2) मातृ जीवन–दर
(3) स्त्री–साक्षरता दर
(4) स्त्री की विवाह की आयु
(5) स्त्री पुरुष अनुपात
(6) परिवार और समाज में महिला की अवस्थिति
(7) महिलाओं की व्यावसायिक अवस्थिति
(8) महिलाओं के सम्पत्ति अधिकार
(9) देश के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन में महिलाओं की सहभागिता
(10) महिलाओं का सामाजिक एवं वैयक्तिक शोषण। उपर्युक्त संकेतकों के सम्मिलित स्वरूप से जीवन की गुणवत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है।
भारत के संदर्भ में महिलाओं की अवस्थिति– भारतीय महिलाओं की अवस्थिति का इतिहास अत्यन्त जटिल और विविधायुक्त है। जो निम्न उक्तियों से प्रतिबिम्बित है–
(1) ईश्वर ने अपने शरीर को दो भागों–नारी और पुरुष में विभाजित कर सृष्टि की रचना की।
(2) स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं होती।
(3) स्त्री को मंत्रादि नहीं जानने चाहिए।
(4) स्त्री को धन सम्पदा का अधिकार नहीं है।
(5) जहाँ स्त्री का सम्मान है वहाँ देवता निवास करते हैं।
(6) कन्या ही कुल का जीवन है।
(7) स्त्रियाँ अस्थिर वृत्ति की होती हैं।
(8) पुरुष का भाग्य और स्त्री का चरित्र देवता भी नहीं जानते, मानव की सामर्थ्य कैसे हो सकती है।
(9) आदमी औरत का संरक्षक है क्योंकि अल्लाह ने एक को दूसरे से अधिक बलशाली बनाया है।
भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक संरचना में परिवर्तनों के साथ बदलती रहती है।
वर्तमान समय में समाज और राष्ट्र के विकास में स्त्री की भूमिका का उल्लेख करने ” से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि अतीत से भारतीय समाज में स्त्री की क्या स्थिति और भूमिका रही है।
(III) स्त्रियों के विकास में बाधक तत्त्व– ईसा के 300 वर्ष पूर्व से स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आती गयी और विकास में उनकी भूमिका घटती गई इसके लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी रहे हैं–
(1) स्त्री शिक्षा की उपेक्षा
(2) कन्यादान का आदर्श
(3) बाल विवाह
(4) वैवाहिक कुरीतियाँ
(5) संयुक्त परिवार व्यवस्था
(6) पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता
(7) सामाजिक व्यवस्था
(8) मुसलमानों के आक्रमण
(1) स्त्री–शिक्षा की उपेक्षा– अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारणों से स्त्रियों को शिक्षा देना अनावश्यक समझा गया। यह माना जाने लगा कि स्त्रियों को नौकरी नहीं करती है अत: उन्हें शिक्षा दिलाने की कोई आवश्यकता नहीं है। शिक्षा के अभाव में स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं रह सकीं और एक–एक करके उनके सभी अधिकार छिनते गए। अशिक्षा के कारण वे अन्धविश्वासी कुसंस्कारों और रूढ़ियों में इस प्रकार जकड़ गई कि अब उनमें चेतना नाम की कोई वस्तु शेष नहीं रह गई परिणाम यह हुआ कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की स्थिति काफी भिन्न हो गयी।
(2) कन्यादान का आदर्श– कन्यादान के आदर्श में भी स्त्रियों की स्थिति को निम्न करने में योग दिया। बाह्य–विवाह के अंतर्गत योग्य वर को ढूंढ कर पिता वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित अपनी लड़की को दान के रूप में उसे देता था उस समय कन्यादान का महत्त्व योग्य वर को ढूँढ़ने से सम्बन्धित था। धीरे–धीरे स्मृतिकाल के बाद कन्यादान की धारणा के अन्तर्गत कन्या को एक वस्तु के रूप में समझ लिया गया अब यह माना जाने लगा कि जो वस्तु दान में दी जा चुकी है, उसे न तो वापस लिया जा सकता है और न ही पुनः उसका दान किया जा सकता है । जिस व्यक्ति ने उसे कन्यादान के रूप में ग्रहण किया है वह जैसा चाहे उसका उपयोग कर सकता है । इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्रियों के अधिकार छिनते गए।
(3) बाल विवाह– स्मृतिकार बाल–विवाह के पक्ष में थे। उन्होंने कम आयु में ही लड़की का विवाह कर देना माता–पिता का धार्मिक कर्त्तव्य माना परिणाम यह हुआ कि लड़कियों के लिए विवाह संस्कार ने ही उपनयन संस्कार का स्थान ले लिया और लड़कियों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं रही। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर नहीं मिला वे पुरुष की दासी मात्र बन कर रह गयीं उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहा। घर की चहारदीवारी में सन्तानों का पालन–पोषण और अन्य सदस्यों की सेवा करना ही उनका कार्य रह गया परिणामस्वरूप उनकी स्थिति गिरती गयी।
(4) वैवाहिक कुरीतियाँ– स्त्रियों की विकास में या उनकी स्थिति को नीचे गिराने में वैवाहिक कुरीतियों जैसे–कुलीन विवाह, अन्तर्विवाह, विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध तथा दहेज प्रथा आदि का काफी योग रहा है । कुलीन विवाह की प्रथा के कारण सामान्य स्थिति वाले लड़कियों के माता–पिता को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। दहेज बढ़ जाने से लड़कियों को भार के रूप में देखा जाने लगा। अन्तर्विवाह के कारण प्रत्येक हिंन्दू के लिए अपनी ही जाति या अजाति में विवाह करना आवश्यक हो गया। स्त्री शिक्षा के अभाव तथा बाल विवाह के प्रचलन के कारण जीवन साथी के चुनाव में लड़कियों की इच्छा या उनकी राय सुनने का कोई प्रश्न ही नहीं रहा पति चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो पत्नी को उसे परमेश्वर मानकर उसकी पूजा करनी पड़ती थी। वह किसी भी स्थिति में विवाह विच्छेद नहीं कर सकती थी विधवाओं को पुनर्विवाह की आज्ञा नहीं दी गयी व पुरुष अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करने के लिए स्वतंत्र थे।
(5) संयुक्त परिवार व्यवस्था– इस प्रणाली ने स्त्रियों की स्थिति गिराने में सक्रिय योगदान दिया है। संयुक्त परिवार में स्त्रियों को सीमित स्वतंत्रता प्राप्त होती और न ही उनके कोई अधिकार होते हैं। अधिकांशतः स्त्रियों को पुरुषों की कृपा पर निर्भर रहने वाले आश्रित नारियों के रूप में जीवन बिताना पड़ता है।
(6) पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता– पति ही पत्नी का भरण पोषण करने वाला माना गया और इसी कारण उसे भर्ता कहा गया ऐसी स्थिति में पत्नी को पति पर आश्रित होना स्वाभाविक ही है। उत्तर–वैदिक काल के बाद स्त्रियों के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार समाप्त कर दिये गए। उन्हें आवश्यकता की पूर्ति के लिए पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ा। साथ ही आज के समान उस समय स्वतंत्र रूप से आजीविका कमाने की सुविधाएं भी स्त्रियों को प्राप्त नहीं थीं आर्थिक दृष्टि से कोई भी काम करना स्त्रियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता था। ऐसी स्थिति में स्त्रियों पर पुरुषों का एकाधिकार हो गया। भारत पुरुष प्रधान समाज था। ऐसी आर्थिक निर्भरता के कारण पत्नी किसी भी स्थिति में पति से सम्बन्ध विच्छेद करने या परिवार की सदस्यता छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकती इससे स्त्रियों की स्थिति निम्न हो गयी।
(7) सामाजिक व्यवस्था– विकास में स्त्रियों की न्यून भूमिका के लिए भारतीय समाज की संरचना भी उत्तरदायी है जो उन्हें गृह–कार्य के अतिरिक्त घर के बाहर कार्य करने की इजाजत नहीं देता है । हमारा समाज पुरुष प्रधान है इसलिए बहुत कम स्त्रियाँ सामाजिक जीवन में भमिका निभाती है।
(8) मुसलमानों के आक्रमण– भारत में मुसलमानों के आक्रमण और राज्य स्थापना, के बाद स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आयी और उनकी भूमिका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। मुस्लिम आक्रमणकारियों से हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु सामाजिक नियमों को कठोर बनाने और कड़ाई के साथ लागू करने का प्रयास किया। मुसलमान हिन्दू स्त्रियों और विधवाओं से भी विवाह करना चाहते थे। इस स्थिति से बचने के लिए स्त्रियों पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये। बाल–विवाह को प्रोत्साहित किया गया, विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया गया स्त्रियों को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था। ऐसी स्थिति में लडकियों के शिक्षा प्राप्त करने की सम्भावना कम हो गई इन परिस्थितियों में स्त्रियों की स्थिति गिरी तथा उनकी भूमिका क्षीण हा गयी।
स्त्रियों में अशिक्षा के कारण समाज में उनकी स्थिति निम्न हो गयी। स्पष्ट है कि हिन्दू स्त्रियों को निम्न स्थिति के लिए उपरोक्त कारण उत्तरदायी रहे हैं ।